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दैनिक भास्कर की रिपोर्ट: आज इंटरनेशनल माइग्रेंट्स डे है। 18 दिसंबर को हर साल माइग्रेंट्स यानी प्रवासियों की समस्याओं और आने वाली चुनौतियों के बारे में चर्चा की जाती है। आइए जानते हैं दुनिया के सबसे बड़े माइग्रेंट्स के विंडरश मजदूरों के बारे में…।

2 दिसंबर 2022 को कनाडा ने अपने इमिग्रेशन कानून में बड़ा बदलाव किया। यहां की सरकार ने तय किया कि कनाडा में काम करने वाले विदेशियों के परिवार को भी वर्क परमिट दिया जाएगा। जिससे वो भी कनाडा में नौकरी कर पाएंगे। अस्थायी कामगारों को मिलने वाला ये परमिट सिर्फ 2 साल के लिए होगा।

ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि आर्थिक मंदी की संभावनाओं के बीच दो साल बाद कनाडा गए लोगों का क्या होगा? 74 साल पहले इसी तरह गरीब देश के लोगों को यूरोप में काम देने के लिए बुलाया गया था। लेकिन, कुछ साल बाद ही यूरोप में इन्हें बोझ समझा जाने लगा। इनमें 13 हजार भारतीय भी थे। जानिए ‘विंडरश’ के नाम से मशहूर ऐसे लाखों लोगों की कहानी…

अमेरिकी पैसे से यूरोप में नई फैक्ट्रियां लगीं तो मजदूरों की कमी हुई

दो विश्व युद्धों से हुई बर्बादी के कारण यूरोप के देशों में ये समझ बनने लगी थी कि जंग से कुछ हासिल नहीं होगा। वहीं इसी समय अमेरिका और रूस के संबंधों में खटास बढ़ती जा रही थी। ऐसे में यूरोप के देशों को अपनी ओर करने के लिए अमेरिका ने खूब पैसा खर्च किया था, जिससे यूरोपियन यूनियन बनने में मदद मिली।

1948 में अमेरिका के विदेश मंत्री जॉर्ज मार्शल थे। अलजजीरा वेबसाइट के मुताबिक मार्शल ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने वेस्टर्न यूरोप को एक करना अपनी जिंदगी का बड़ा मकसद बना लिया था। इनके नाम पर ही अमेरिका ने एक मार्शल प्लान तैयार किया और यूरोप को 1 लाख करोड़ रुपए की मदद की। इसका नतीजा ये हुआ कि रूस के खिलाफ 1949 में NATO के नाम से दुनिया का एक ताकतवर संगठन बना।

यूरोपीय यूनियन के संस्थापक ‘जीन मोनेट’ लगातार अमेरिका के संपर्क में थे। अमेरिका से मिल रही आर्थिक मदद के चलते यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था एक बार फिर से पटरी पर आने लगी थी। ऐसे में वहां की नई फैक्ट्रियों में मजदूरों की कमी महसूस होने लगी। मजदूरों की कमी को कम करने के लिए 1950 से 70 के दशक में भारत और कैरिबियाई देशों से लाखों लोगों को यूरोप लाया गया।

मजदूरों को ‘विंडरश’ कहे जाने किस्सा….

1948 से 1971 के दौरान जो लोग भी यूरोप गए, उन्हें ‘विंडरश जनरेशन’ के नाम से जाना जाता है। अब आप सोच रहे होंगे कि इन्हें विंडरश ही क्यों कहा जाता है? दरअसल, वो इसलिए क्योंकि इंगलैंड ने मजदूरों को कैरिबियाई देशों से लाने के लिए एक जहाज भेजा था, जिसका नाम ‘ एचएमटी विंडरश’ था। 1027 मजदूरों से भरा हुआ यह जहाज 1948 में जमैका, त्रिनिदाद और टोबैगो से लोगों को लेकर लंदन पहुंचा। इस जहाज के बाद भी गरीब देशों के लोगों का यूरोप आना जारी रहा। जिसके कारण 1971 तक यूरोप गए वाले लोगों को विंडरश जेनेरेशन के नाम से जाना जाता है।

यूरोप आने वाले मजदूरों में सबसे ज्यादा लोग जमैका और भारत से थे। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक उस समय कुल 57,000 लोग इंगलैंड गए थे। जिनमें भारत से लगभग 13,000 और जमैका से करीब 15,000 लोग थे। इसके अलावा पाकिस्तान, केन्या और साउथ अफ्रीका से भी लोग नौकरी के लिए ब्रिटेन गए थे। विंडरश जहाज से खासतौर पर बुलाए गए लोगों में कई पूर्व सैनिक शामिल थे। जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन की तरफ से जर्मनी के खिलाफ लड़े थे।

द इंडिपेंडेंट में लिखी अपनी रिपोर्ट में निकोलस बोस्टन ने बताया है कि जमैका से आए एचएमटी विंडरश जहाज में भी भारतीय मूल के कई लोग थे। दरअसल ब्रिटिश एंपायर ने साल 1838 से 1917 के बीच मजदूरी करने के लिए कई भारतीयों को जबरन कैरेबिया भेजा था। जिसके बाद वो लोग वहीं बस गए और कभी भारत नहीं लौट पाए। रिपोर्ट के मुताबिक विंडरश जहाज में जो भारतीय मूल के लोग थे वो उन्हीं लोगों के वंशज थे।

रोजगार की तलाश में 1948 से लगभग 1970 तक लोगों का आना ऐसे ही जारी रहा, जो 1971 में बने यूरोप के प्रवासी कानून के बाद बंद हुआ। ब्रिटेन ने 1971 तक आए लोगों को ये अधिकार दिया था कि वह जब चाहें तब अपने देश लौट सकते हैं। उन्हें जबरन वहां से नहीं निकाला जाएगा।

1973 में आई मंदी ने सबकुछ बदल दिया

1973 के आते-आते अमेरिका जो हासिल करना चाह रहा था, वो हासिल कर चुका था। यानी यूरोप के कई देश रूस के खिलाफ शीत युद्ध में अमेरिका का साथ देने लगे थे। शुरुआत में नानुकुर करने के बाद इंग्लैण्ड भी यूरोपियन यूनियन का हिस्सा बन गया था।

लेकिन, उसी साल कच्चे तेल की कीमतों में आए भारी उछाल ने यूरोप की अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका दे दिया। इसने न सिर्फ भारत बल्कि दूसरे देशों से आए मजदूरों को भी बेरोजगार कर दिया था और उनके भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया था।

हालांकि ये तो साफ था कि सालों तक यूरोप के लिए पसीना बहाने के बाद वो अपने देश नहीं लौट सकते थे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आई मंदी से कई यूरोपीय देशों की राजनीति भी प्रभावित होने लगी थी। यही वह दौर था, जब कई यूरोपीय देशों में रूढ़िवादी पार्टियों का विस्तार होना शुरू हुआ। इन पार्टियों ने राजनीतिक लाभ के लिए वहां के लोगों को इन प्रवासी मजदूरों के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया।

विदेशी मजदूरों के खिलाफ बनी फ्रांस में राजनीतिक पार्टी

फ्रांस में जीन मरीन ले पेन नाम के एक शख्स ने बाहरी देशों से आए मजदूरों के खिलाफ हो रहे विरोध का नेतृत्व किया। वह टेलीविजन कार्यक्रमों से एक ऐसा माहौल तैयार करने में कामयाब रहे कि फ्रांस का हर आदमी इन मजदूरों को उनका हक मारने वाला समझने लगा। 1973 के बाद जैसे-जैसे बेरोजगारी बढ़ने लगी, वैसे-वैसे अप्रवासी मजदूरों के खिलाफ नफरत फैलने लगी और उनके खिलाफ प्रदर्शन होने शुरू हो गए थे।

यूरोप के लोग चाहने लगे थे कि प्रवासी मजदूर अपने देश लौट जाएं। इसकी वजह से तनाव भी बढ़ने लगा था और कई जगह तो तनाव दंगों में बदल गया। मार्सिले जो कि फ्रांस का एक शहर है, वहां प्रवासियों पर हमले होने लगे और इन हमलों में कई लोगों की जान भी गई। इससे जीन मरीन ले पेन की पार्टी को काफी फायदा पहुंचा।

1972 में उन्होंने नेशलन फ्रंट पार्टी का गठन किया। जीन मरीन ले पेन ने अलजजीरा को एक इंटरव्यू में कहा कि अप्रवासियों की वजह से उन्हें लगने लगा था कि जैसे कोई फ्रांस को हड़पने की कोशिश कर रहा है। भारत और दूसरे देशों से आए प्रवासी मजदूरों के खिलाफ बढ़ रही हिंसा के चलते उन्हें वापस अपने देश जाने को कहा गया। सरकार, ऑटोमाबाइल कंपनियों और यूनियनों ने इन्हें वापस लौटने के लिए आर्थिक मदद देने का वादा भी किया था।

1980 के आते-आते इंगलैण्ड में भी दंगे होने लगे थे, जो ब्रिक्सटोन रॉयट के नाम से मशहूर हैं। इन दंगों में 300 लोग घायल हुए थे जबकि उस वक्त 76 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। अलजजीरा के मुताबिक ये दंगे उन जगहों पर ज्यादा हो रहे थे जहां ज्यादा प्रवासी लोग रहते थे। जैसे ब्रिमिंगहम, चैपलटाउन, मैनचेस्टर और लीवरपूल।

इराक युद्ध के बाद प्रवासी लौटे, तो देश का विदेशी मुद्रा भंडार घटा

विदेश मामलों के जानकार और जेएनयू प्रोफेसर राजन जोशी ने कहा कि कनाडा की इस योजना से भारत के कामगारों को शॉर्ट टर्म में फायदा ही होगा। उन्होंने बताया कि अभी जो लोग दो साल के लिए कनाडा जाएंगे उन्हें वहां काम करने का अनुभव होगा जिससे आगे आने वाले समय में वर्क वीजा के लिए उनकी दावेदारी और मजबूत होगी । उन्होंने यह भी बताया कि कई देशों के साथ भारत जो फ्री ट्रेड एग्रीमेंट डील करना चाह रहा है उसमें हम स्किल्ड वर्कर्स की मूवमेंट के लिए फ्री एक्सेस की मांग कर रहे हैं।

यूरोप-कनाडा में मंदी आई, तो विदेशी कामगारों पर ज्यादा असर

यूरोप और कनाडा में आने वाली मंदी की संभावनाएं हकीकत में बदलती हैं तो इसका खामियाजा वहां गए विदेशी कामगारों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ेगा। उन्होंने अमेरिका और ब्रिटेन में हुए ब्रेक्जिट का हवाला देते हुए बताया कि जब किसी देश में रोजगार को लेकर मामला उठता है तो निशाने पर सबसे पहले विदेशी कामगार ही आते हैं।

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का जिताने वाले वो लोग थे जिन्होंने दूसरे देशों से आने वाले लोगों के हाथ अपनी नौकरी गंवाई थी। वहीं ब्रेक्जिट में भी ऐसा ही हुआ था। एक्सपर्ट के मुताबिक ब्रिटेन के लोगों को लग रहा था कि यूरोप के दूसरे देशों से फ्री वीजा के साथ आ रहे लोग ब्रिटेन के लोगों का रोजगार हथिया रहे हैं।

कम कीमत पर स्किल्ड लेबर्स के लिए विदेशी मजदूर लाते हैं अमीर देश

राजन जोशी ने कहा कि दुनिया के अमीर देश बिना प्रवासी कामगारों के रह भी नहीं सकते हैं। विकासशील और गरीब देश के लोगों को कम सैलरी पर दूसरे देशों में काम पर रखा जाता है। जिससे कंपनियों को सस्ते और स्किल्ड लेबर मिल जाते हैं। उन्होंने बताया कि प्रवासी कामगार अपने देश के लिए कितने महत्वपूर्ण होते हैं कि इसका अंदाजा 1991 के विदेशी मुद्रा भंडार में आई कमी से पता चलता है। दरअसल इस दौरान इराक युद्ध के कारण गल्फ देशों में काम कर रहे लाखों लोग वापस भारत आ गए थे। ये लोग रेमिटांस (विदेशों में से की गई कमाई) के रूप में भारत में खूब पैसे भेजते थे। जो युद्ध के कारण रुक गया था जिसका भारत की अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा था।

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